माँ मुझे डर लगता है …बहुत डर लगता है
सूरज की रौशनी आग सी लगती है
पानी की बूँदें भी तेज़ाब सी लगती है
माँ हवा में भी ज़हर सा घुला लगता है
माँ मुझे छुपा ले बहुत डर लगता है
माँ याद है वो कांच की गुडिया जो बचपन में टूटी थी
माँ कुछ ऐसे ही आज मैं टूट गयी हूँ
मेरी गलती कुछ भी ना थी माँ फिर भी खुद से रूठ गयी हु
माँ बचपन में स्कूल टीचर की गन्दी नज़रों से डर लगता था
पड़ोस के चाचा के नापाक इरादों से डर लगता था
माँ वो नुक्कड़ के लडको की बेवक़ूफ़ बातों से डर लगता है
और अब बॉस के वहसी इशारो से डर लगता है
माँ मुझे छुपा ले बहुत डर लगता है
माँ तुझे याद है तेरे आंगन में चिड़िया सी फुदक रही थी
ठोकर खाके मैं ज़मीन पे गिर पड़ी थी
दो बूँद खून के देख माँ तू भी रो पड़ी थी
माँ तूने तो मुझे फूलों की तरह पाला था
उन दरिंदो का आखिर मैंने क्या बिगाड़ा था
क्यूँ वो मुझे इस तरह मसल के चले गए
बेदर्द मेरी रूह को कुचल के चले गए
माँ तू तो कहती थी अपनी गुडिया को दुल्हन बनाएगी
मेरे इस जीवन को खुशियों से सजाएगी
माँ क्या वो दिन ज़िन्दगी कभी न लाएगी
माँ क्या अब तेरे घर बरात ना आएगी ??
माँ खोया है जो मैंने क्या फिर से कभी ना पाऊँगी??
माँ सांस तो ले रही हु…क्या ज़िन्दगी जी पाऊँगी ??
माँ घूरते है सब अलग ही नजरो से
माँ मुझे उन नज़रों से छुपा ले
माँ बहुत डर लगता है… मुझे आँचल में छुपा ले
Cheers!!
Living in TERROR!!
Received this as a message from a friend last night and couldn’t resist myself from posting it on my blog-